रात के 2 बज रहे थे, तभी फोन की आवाज ने नींद में विघ्न उत्पन्न किया।”हेलो””हेलो, राजीव को कोरोना हो गया है, हालत गंभीर है” उधर से घबराई हुई आवाज आयी।
फोन पर चाचाजी थे। देश कोरोना की दूसरी लहर से लड़ रहा था, यह पहली लहर से अधिक ताकतवर थी परंतु इसके चलते देश को एक और समस्या जिसे सिस्टम कहते हैं, से भी भिड़ना पड़ रहा था। देश भर में कोरोना के चलते ऑक्सीजन की भारी मात्रा में कमी आ गयी थी। ऐसा नहीं था कि भारत के पास पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं था, वरन उसके सिस्टम में अत्यधिक मात्रा में उसे समय पर हस्पताल पहुँचाने का कोई साधन या विकल्प उपलब्ध नहीं था, कह सकते हैं कि हम इसमें उस समय सक्षम नहीं थे। लोग जान गवाए जा रहे थे और देश डर के माहौल में जीने को मजबूर हो गया था। हालत यह थी कि कोरोना सुनते ही लोग सोचने लगे जा रहे थे कि जिसको यह बीमारी हुई है, उसको वे अब दोबारा देख पायेंगे या नहीं। सरकार ने लॉकडाउन लगा रखा था जिससे लोग घरों से बाहर ना निकलें व एक दूसरे से ना मिलें क्योंकि यह बीमारी बीमार व्यक्ति के संपर्क में आने से फैल रही थी।
राजीव चाचाजी के बेटे का नाम था। राजीव वैसे मुझसे छोटा था पर सिर्फ उम्र में, यकीन मानिए देखकर आप उसको मुझसे कई साल बड़ा बताने की भूल कर सकते हैं, लंबी दाढ़ी-मूँछ, मोटा विशालकाय 7 फ़ीट का शरीर। चाचा, चाची और राजीव गाँव में ही रहते थे, मेरा बमुश्किल ही वहाँ जाना होता था और उनसे मिलना भी।
“राजीव को कई दिनों से कोरोना के लक्षण थे, जब चेक करवाया तो संभावना जो कि वही रहनी चाहिए थी मगर सत्य में परिवर्तित हो गयी। प्राइवेट हस्पताल वाले दिन का 50 हज़ार से ज्यादा रुपये ले रहे हैं, कहीं बेड नहीं मिल रहा सब जगह मारामारी है, किसी तरह सरकारी हस्पताल में व्यवस्था हो जाये तो इसका इलाज करवा पाएंगे अब, नहीं तो घर लेके चले जायेंगे…” सिसकती आवाज में उन्होंने कहने की कोशिश की पर ज्यादा देर अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाए और बात पूरी होने के पहले ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे।
मैं स्तब्ध था। चारों तरफ महामारी फैली थी, लोग जान बचाने को महीनों से घर से नहीं निकले थे, प्रतिदिन कमा के घर चलाने वालों के घरों में तो अलाव भी नहीं जल पा रहा परन्तु हमारे देश में आपदा को अवसर बनाने वाले लोग इसमे भी अपने हाथ धो रहे थे। ऊपर जिस सिस्टम की बात की थी मैंने यह भी उसी का एक हिस्सा है। जिस बीमारी की दवाई तक बनके बाज़ार में नहीं आ पाई थी, उसका इलाज करने के लिए एक बेड के दिन के पचास हज़ार!
“आप परेशान ना हों चाचाजी, रात और उसी हस्पताल में बिता लीजिये। सुबह तक वहाँ के सरकारी हस्पताल में बेड का प्रबंध देखते हैं। आप संभालिये खुद को वरना राजीव को कौन संभालेगा।” मैंने उन्हें थोड़ा हौंसला देने के लिए कहा।
“ठीक है बेटा, अच्छा हम रखते हैं डॉक्टर बुला रहे हैं,” उन्होंने खुद को संभालते हुए कहा और फ़ोन रख दिया।
नींद अब आँखों से कोसों दूर जाकर ओझल हो गयी थी, आँखें अपने सामने चाचाजी के रोते हुए व राजीव के हँसते हुए चेहरे का एक चित्र एकाएक बार-बार उकेर रही थीं। मैं किंकिर्तव्यविमूढ़ था कि चाचाजी से हस्पताल के लिए बोला तो है परंतु इस विकट आपदा के समय दुर्लभ सरकारी हस्पताल का बेड कहाँ से लाऊँगा? हाँ स्थिति सचमुच भयावह थी, लोगों को समय पर उपचार नहीं मिल पा रहा था, फलस्वरूप अनगिनत मौतें। इसपर हमारी सरकार सिर्फ एक ही कार्य कर रही थी, आँकड़ो को तोड़-मरोड़कर पेश करना। यह सही भी था और गलत भी, सही इसलिए कि लोगों में आत्मविश्वास को बढ़ावा मिल रहा था कि हम भी इस महामारी से जंग जीत जायेंगे और गलत इसलिए क्योंकि सरकार अपनी इस विपदा से निपटने की नाकामी छिपाने में लगी थी।
मुझे अब नींद नहीं आ रही थी तो मैंने बेड पाने के लिये हर संभव प्रयास करना प्रारंभ कर दिया, पर जैसा कि विदित ही था प्रत्येक में सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। मैं अगले प्रयास के लिये किसी अन्य व्यक्ति को फोन करने वाला ही था कि चाचाजी का नंबर फोन की स्क्रीन पर उभर आया। हाँ वापस उन्हीं का फोन था, समय सुबह के पाँच बजे।
“बेटा, मैंने गाड़ी कर ली है, राजीव की हालत खराब हो रही थी। ऑक्सीजन 60 से भी नीचे जा पहुँचा है, मैं इसे सरकारी हस्पताल लेके पहुँच रहा हूँ। ये गाड़ी वाले भी 5 किलोमीटर का 15 हज़ार रूपया लिये हैं, अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है, तुम बेड की व्यवस्था तो कर दिए हो ना?” उन्होंने बहुत उम्मीद के साथ मुझसे पूँछा।
मैं आईने के सामने खड़ा हुआ स्वयं को निर्निमेष देख रहा था, मुझे उनकी उम्मीद और अपनी नाकामी दोनों साफ दिखाई दे रही थीं। अब आँखें अपने सामने राजीव का हँसता हुआ नहीं किन्तु रोता, बिलखता, उम्मीद से मेरी तरफ देखता हुआ चेहरा उकेर रहीं थीं। मन बैचेन हो रहा था और क्रोध भी आ रहा था, क्या लोगों की जान से रुपया ज्यादा कीमती हो गया है? 5 किलोमीटर के 15 हज़ार, वाह! सामने वाले की परिस्थिति कुछ भी हो, उन्हें बस अपनी जेब भरनी है…
“हैलो बेटा, सुन रहे हो ना तुम?” इस आवाज ने मुझे मेरे विचारों की दुनिया से बाहर निकाला।
“हाँ चाचाजी आप हस्पताल पहुँचिये, सारी व्यवस्था तब तक हुयी जा रही है।” मैंने निर्बाध होकर कहा और फोन रख दिया।
निर्बाध बात कहकर फोन रखना पड़ा क्योंकि उनकी तरफ से और कुछ सुन नहीं सकता था, और अपने निराशाजनक प्रयासों को देखकर अब इसकी हिम्मत भी बाकी नहीं रह गयी थी। मैं अपने भाई की किंचित् मदद भी नहीं कर पा रहा था, उस समय जब उसे इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। क्या करता कुछ समझ नहीं आ रहा था, देश भर में सभी की यही दशा थी कि सबकुछ होने या ना होने में कोई विशेष अंतर नहीं रह गया था क्योंकि सभी बेबस थे और मदद करने में असमर्थ। यहाँ सबकुछ होने या ना होने से तात्पर्य है कि चाहे आप कितने ही पैसे वाले हो या कितनी ही बड़ी पहुँच वाले या इनमे से कुछ भी नहीं, सभी उस महामारी में एक ही नाव पर सवार यात्री जैसे थे जो कभी भी डूब जाने के लिये समुद्र में गोते लगा रही रही।
जितनी अधिक नकारात्मकता देश के लोगों में उस महामारी के लिये भर गई थी, उससे कहीं अधिक मात्रा में कोरोना की जाँच सकारात्मक परिणाम में सामने आ रही थी, इसका नतीजा मरीजों की संख्या में लाखों की वृद्धि, भयावह किन्तु सत्य।
फोन ने फिर आवाज़ लगायी, उठाते ही उधर से चाचाजी की रोते हुये आवाज कानो में पड़ी – “बेटा, राजीव ने साँस लेना बंद कर दिया है, हस्पताल वाले बेड तो दूर अंदर भी नहीं आने दे रहे हैं अभी। इमरजेंसी के बाहर बेंच पर राजीव को गोद मे लिटाकर बैठा हूँ, उसकी ये दशा अब मुझसे देखी नहीं जा रही, जल्दी किसी डॉक्टर को फ़ोन करके कह दो कि इसे भर्ती करें या ना करें पर इसका यहीं पर उपचार शुरू कर…” कहते हुए उनके शब्द रुक गये। उनके मुँह से आवाज नहीं आ रही थी, शायद वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे थे, उनके पीछे शोर में मैं और लोगों के रोने की आवाजें सुन सकता था, शायद सभी इसी परिस्थिति में थे जिसमें कि चाचाजी। कितना डरावना दृश्य होगा उस हस्पताल का या सभी हस्पतालों का जहाँ हर समय ऐसा रोना बिलखना हो रहा हो और हाथों में अपनों के या तो बीमार या फिर मृत शरीर हों, सोचने भर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
“चाचाजी संभालिये खुद को, मैं डॉक्टर से बात करता हूँ,” मैंने उनसे कहा।
उधर से कोई जवाब नहीं आ रहा था। मेरे हाथ-पाँव फूलने लगे, कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गयी। क्या हो गया? चाचाजी कुछ बोल क्यों नहीं रहे? सवाल मेरे मन को घेरने लगे। वो इंजेक्शन (दवाई) की बात कर रहे थे, अब उन्हें कैसे बताऊँ कि वो कहीं नहीं मिल रहा और जहाँ मिल रहा वहाँ अपनी कीमत से पाँच-छह सौ गुना ज्यादा कीमत में वो भी नकली। उन्हें भरोसा ही नहीं होगा क्योंकि ऐसे समय में सभी को पीला रंग भी सोना ही लगता है जब उसकी अत्यधिक आवश्यकता हो।
मैंने हिम्मत कसी और फिर पूँछा – “चाचाजी क्या हुआ सब ठीक तो है ना? आप चिंता मत करिये मैं अभी डॉक्टर से बात कर रहा हूँ, सब ठीक हो जाएगा।”
“अब आवश्यकता नहीं है बेटा,” उधर से आवाज आयी और फिर कुछ गिरने की आवाज सुनाई दी, शायद उनके फोन के गिरने की। उनका राजीव कहते हुए जोर से रोना मैं सुन सकता था, और अपने आँसुओं को भी अब नहीं रोक पा रहा था सो वो भी मेरे गालों के रास्ते ज़मीन पर गिरने लगे।
राजीव को हम नहीं बचा पाये। ये मेरी नाकामी थी या सिस्टम की या सरकार की, पता नहीं। किसी पर ऐसे दोष तो मढ़ा नहीं जा सकता। सो मैंने खुद की नाकामी मानी और आज तक उस नाकामी का बोझ सिर पर लिये घूम रहा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या उसे बचा सकते थे? अगर सिस्टम में पहले से ऑक्सीजन को अधिक मात्रा में समय पर हस्पताल पहुँचाने के साधन होते, या बंद पड़े सरकारी दफ्तरों और स्कूलों को उस विकट परिस्थिति में अगर कोरोना केयर सेन्टर बना दिया गया होता सारी व्यवस्थाओं के साथ, या लोग आपदा को अवसर में ना बदलते हुये जरूरतमंद की मदद करने आगे आये होते और जो जरूरी उपचार की सामग्री उनके पास उपलब्ध होती अगर वो समक्ष प्रस्तुत करते बिना अपनी जेबें भरने की सोच के। अगर… अगर… अगर… ज़िन्दगी में अब बस इसी प्रकार के बहुत सारे “अगर” शेष रह गए हैं, उन्हीं के सच होने की प्रतीक्षा अभी भी करता रहता हूँ और सोचता हूँ कि ये सब उस समय ‘अगर’ नहीं ‘सत्य’ होते तो आज कितनों के अपने उनके पास होते उनकी गोद में।
Rishabh Badal