निर्निमेष देख रहा था तुम्हे, स्तब्ध था
वो पल हम दोनों का ही प्रारब्ध था।
भाव अपने चित्त के समक्ष रखना चाहता था सभी,
पर सोचा पहली भेंट आखिरी ना हो जाये, किंकिर्तव्यविमूढ़ था।
हिम्मत लाया कुछ पल बाद, सामान्य था
उस दिन मेरा जीवन-मरण तुम्हारे हाथ था।
मेरे हृदय की अट्टालिका में वास करती हो तुम,
तुमको बताया मैंने, सर हिलाक़े जाना तुम्हारा इनकार था।
जिजीविषा समाप्त हो गयी थी मेरी, असहाय था
नयन सूखे मेरे पर हृदय रो रहा था।
तुम्हारा बिना कुछ कहे इनकार मुझसे स्वीकार ना हुआ,
समय मेरा क्लिस्ट, और हाथ में हृदय का बचा हुआ भग्नावशेष था।
– ऋषभ बादल